May 11, 2020
प्रस्तुतकर्ता - manisar
यह कहानी बचपन में मैंने स्वामी रामतीर्थ की किसी पुस्तक में पढ़ी थी। बचपन में तो इसकी गहराई, तत्त्व और संदेश समझ नहीं पाया। नित यही सोचता था की उस युवती की उस बात पर उसे ऐसा करने की क्या आवश्यकता थी!
लेकिन फिर उम्र के साथ बात समझ में आयी तो कहानी का सार पता चला।
एक पहाड़ पर एक युवा योगी तन-मन-धन से आत्म-साक्षात्कार के प्रयासों में रत रहता था। दिन-रात ध्यान और आत्म-विश्लेषण - यही उसके कार्य था। किन्तु शरीर की तो आवश्यकताएँ होती ही हैं। जब कभी कुछ दिनों में भूख से हाल बेहाल जो जाता था, तो अपना भिक्षा-पात्र लिए वह, पहाड़ के नीचे गाँव में भोजन प्राप्ति के लिए आता था।
एक दफा, जब वह भिक्षाटन के लिए घूम रहा था तो एक द्वार पर एक युवती ने उसे कुछ खाद्य प्रदान किया और वह पहाड़ पर वापस लौट गया। पुनः कुछ दिनों के पश्चात् जब वह भोजन-प्राप्ति हेतु उस गाँव में विचरण कर रहा था तो उस द्वार पर उसे वह युवती दिखी। योगी को देखकर वह अन्दर जाकर खाने के लिए कुछ ले आई और उस योगी को दिया। योगी के भिक्षा-पात्र में भोज्य डालते हुए वह बोली - "मैं तो बहुत समय से तुम्हारी राह देख रही थी... तुम्हारी आँखों ने मुझे मोह लिया है।" योगी ने भोजन लिया और चलता बना। फिर आगे जाकर उसने वह सारा भोजन फेंक दिया व किसी और द्वार से भोजन ग्रहण कर पहाड़ पर लौट गया।
आगे वह हुआ जो आप सोच नहीं सकते...
पहाड़ पर जा कर उसने एक लोहे के सुए को तपाकर लाल कर लिया, फिर उस से अपनी आँखें निकाल लीं और उन्हें अपने भिक्षा-पात्र में डाल लिया। दो-तीन दिन बाद किसी तरह रास्ता टटोलते-टटोलते वह उस युवती के द्वार पर पहुँचा। वह द्वार पर ही खड़ी थी, दूर से ही उसने योगी को देखकर कहा - "मैं अभी आई"। इतना कह कर वह संभवतः भोजन लाने अंदर की ओर मुड़ी। लेकिन उसके जाने से पहले ही योगी चिल्लाकर बोला - "रुको माँ, यह लो। ये आँखें तुम्हें पसन्द आयीं थीं, इन्होंने तुम्हें मोह लिया था। अब इन्हें तुम रख लो।" इतना कहकर, अपना भिक्षा-पात्र रखकर वह फिर चलता बना।
जैसे डूबते को तिनके का सहारा काफी होता है, ऐसे ही उड़ते को तिनके का भार भी बहुत हो सकता है, विशेष रूप से नए पंछी को।
वेदान्त के रास्ते पर चलते हुए योगी की चिन्मात्र भी बाधा स्वीकार्य नहीं थी। यह तो आवश्यक या संभावित नहीं था कि उस योगी को वह युवती भी पसन्द आ गयी होगी, किन्तु कोमल भावनाओं ने कदाचिद् हृदय के द्वार पर दस्तक दे दी होगी। या नहीं भी दी होगी, तो भी दूर से आती उनकी आहटों का स्वर योगी के कानों तक पहुँच गया होगा।
जब मन में ऐसी लगन लगी हो कि क्षण मात्र का भी अपव्यय स्वीकार्य न हो, और शरीर से तो कदाचिद् बहुत पहले ही विलगता हो गयी हो, तो ऐसा कदम उठाया जा सकता है।
ऐसा जुनून, ऐसी सनक बहुतों के लिए हास्यास्पद होगी, लेकिन कुछ-एक के लिए प्रेरणात्मक भी हो सकती है।
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