"Whenever you can, share. You never know who all will be able to see far away standing upon your shoulders!"
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यह कहानी अद्भुत है। अतुल्य और अविश्वसनीय! और मेरी प्रियतम कहानियों में से एक। क्यों है प्रियतम यह थोड़ा स्पष्ट करना आवश्यक है।
वैसे तो इतनी पुरानी कथाओं में क्या सच है और क्या कल्पना इसकी बात करना भी निरर्थक है, फिर भी मेरे विचार से थोड़ा-बहुत वास्तविकता के समीप प्रतीत होती हुई बातों पर अधिक ध्यान दे सकते हैं, और पूरी तरह गप्प लगती हुई बातों की उपेक्षा कर सकते हैं। वैसे यदि आप इसे केवल एक उपन्यास के समान ही पढ़ना चाहें तो बात अलग है, किन्तु यदि कुछ प्रेरणा लेनी है, तो थोड़ा तो उड़ती हुई बातों को किनारे करना पड़ेगा।
अब जो मुझे लगता है - यहाँ तक तो बात ठीक है की बेटे ने प्रश्न खड़ा किया कि "मुझे किसे देंगे" (इस पर फिर लौटेंगे), और यह भी स्वीकार्य है कि पिता ने कह दिया हो कि "जाओ, तुम्हें मृत्यु को दिया", अर्थात् "जाओ मर जाओ"। किन्तु उसके बाद की बात कि फिर नचिकेत यम के द्वार पर पहुँच गया और यम ने वरदान दिये इत्यादि इत्यादि... 'यह बात कुछ हजम नहीं हुई'!
मेरे देखे तो कहानी यह है - पिता ने कह दिया कि "जाओ, मर जाओ", और नचिकेत घर से चला गया। फिर उसने (निश्चित ही अनेक वर्षों में) अनुसंधान कर के जीवन के कुछ गूढ़ रहस्यों का पता लगाया। और फिर, जैसा बहुधा होता था उस समय की कहानियों में - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा! वैसे भी इन शास्त्रों को श्रुति कहते थे - अर्थात् पीढ़ी दर पीढ़ी ये कथाएँ मौखिक रूप से सुनाई और स्मरण कराई जातीं थीं। तो फिर थोड़ा-बहुत इधर का उधर होना बहुत सम्भावित है।
कठोपनिषद की कहानी है नचिकेत (कहीं-कहीं नचिकेता) की कहानी। प्रागैतिहासिक काल में वाजश्रवस नाम के ऋषि/राजा का बेटा था नचिकेत। जब वाजश्रवस ने सर्व-दक्षिणा यज्ञ का अनुष्ठान किया तब नचिकेत एक बालक था। नाम के अनुसार इस यज्ञ में वाजश्रवस को अपना सर्वस्व दान में दे देना था।
यज्ञ प्रारम्भ हुआ और दान इत्यादि होने लगे। तभी नचिकेत का ध्यान गया - "ये जो गाय मेरे पिताजी दान में दे रहे हैं ये तो मृतप्राय हैं! अंधी हैं, लगड़ी हैं, अथवा बाँझ हैं। इनको दान में देने का क्या अर्थ है! नहीं यह तो ठीक नहीं हो रहा।" तो उसने जा के अपने पिताजी से बात की। अब कितनी कहा-सुनी हुई, इसका तो बस अनुमान लगाया जा सकता है, बस आप यह समझ लीजिये कि अंत में नचिकेत ने यह तक पूछ डाला - "तो फिर इस सर्व-दक्षिणा यज्ञ में आप मुझे किसको दान में देंगे?" इतना सुनकर वाजश्रवस, स्पष्टतः क्रोध में, बोले - "तुझे? तुझे यम को (अर्थात् मृत्यु) को दूँगा"।
वाजश्रवस का अभिप्राय तो केवल डराने का रहा होगा किन्तु नचिकेत ने बात गाँठ बांध ली और निकल पड़ा घर से। मृत्यु की खोज में। इसके आगे की कहानी थोड़ी अजीबोगरीब है, मेरे गले तो कभी नहीं उतरी, इसलिए सङ्कोच के साथ शीघ्रातिशीघ्र सुना डालता हूँ। नचिकेत चलता-चलता यमराज के द्वार पर पहुँचा। यमराज अपने घर पर नहीं थे। तो तीन दिन तक नचिकेत भूखा-प्यासा उनकी प्रतीक्षा करता रहा। जब यमराज लौटे तो उन्होने ग्लानिपूर्वक नचिकेत को उन तीन दिनों के लिए तीन वरदान दिये। पहला वरदान नचिकेत ने यह माँगा कि उसके पिता का क्रोध शांत हो जाये और वे उसे पूर्ववत् प्रेम करें, व उन्हें कोई चिंता इत्यादि न रहे। दूसरा यह कि वे उसे अग्निविद्या सिखाएँ जिससे स्वर्ग व अमृत्व की प्राप्ति होती है। तीसरे वरदान के रूप में उसने मृत्यु के बाद क्या होता है, किसका अस्तित्व रहता है व किसका नहीं, यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की।
तीसरे प्रश्न के उत्तर में यमराज ने जो कहा वही समझिये कि कठोपनिषद है। अब मैंने जितना भी और जितनी बार भी कठोपनिषद पढ़ा है मुझे तो यही लगा कि यमराज ने यह तो बताया है कि यह ज्ञान "कैसे" और "किसको" मिल सकता है, पर वस्तुतः यह ज्ञान "क्या" है यह स्पष्टतः नहीं बताया। जो थोड़ा बहुत बताया भी है, वह भी किसी तार्किक अथवा ठोस रूप से नहीं बताया। इसलिए मुझे थोड़ा कम पसन्द है। वैसे मैं समझ सकता हूँ, इतनी गूढ़ बातें ऐसे ही नहीं बताई जा सकतीं। थोड़ा उपक्रम, थोड़ी तैयारी आवश्यक है। किन्तु प्रामाणिक व निष्पक्ष रूप से नचिकेत के प्रश्न का उत्तर यमराज ने दिया हो, ऐसा मुझे प्रतीत नहीं हुआ।
परन्तु कहानी के मोड़ रोचक हैं, और पेंच निराले! नचिकेत का चरित्र वेदांतियों के लिए अत्यधिक प्रेरणात्मक है।
किन्तु जो मोह लेने वाली बात है इस कहानी की, वह यही है कि पिता को घपला करते देख, और घपला भी सामान्य सांसरिक कार्यों में नहीं, अपितु धर्म से जुड़े कार्य में करते देख नचिकेत से रहा नहीं गया। किसी भी सत्य के प्रेमी की यही प्रतिक्रिया होनी चाहिए। सत्य पहले, सारे सम्बन्ध बाद में। फिर, कोई अंजान करे तो कदाचिद् टोकना सदैव उपयुक्त न हो, पर कोई इतना समीपस्थ जैसे कि पिताजी करें, जिनके साथ आपको रहना, खाना हो, और वह भी आपकी नाक के नीचे, तो फिर कैसे न बोला जाये! और कोई छोटी-मोटी बात थी? गाय दे रहे हैं, वे भी मरगिल्ली! न दूध दे सकती हैं, न बछड़ा या बछिया। अरे किसको बेवकूफ बना रहे हो साहब! वे तो आपकी प्रजा है, कदाचिद् इसीलिए कुछ बोल नहीं रहे, कि पता चले अभी तो यज्ञ इत्यादि हो रहा है, बाद में गर्दन कटवा दें। और बाद की भी प्रतीक्षा क्या करनी, यज्ञ में ही न नर-आहुति दिलवा दें! इसीलिए सब चुप रहे होंगे।
डरना तो नचिकेत को भी चाहिए था। भारत-माता का बेटा और अपने बाप से न डरे? भारतीय संस्कृति का क्या होगा? वह रेत के किले के समान ढह नहीं जाएगी? वह भारतीय संस्कृति जिसमें साधारण नागरिक नहीं अपितु परम-पूज्य, विद्वान, समझदार, विप्र-देवता, ऋषि ऐसी घिनौनी चालाकियाँ करते थे। पर वेदान्त के प्रेमी भी ढीठ होते हैं... तुम डाल-डाल तो हम पात-पात। तो वह बोला। और बोला भी आग की लपट के समान - "गाय-वाय तो छोड़िए, यह बताइये कि आप मुझे किसे देंगे। यज्ञ में सब कुछ दान देने कि प्रतिज्ञा की थी न, तो बताइये कि मुझे किसे देंगे!" वाह नचिकेत वाह! कमाल कर दित्ता! एड्डी छोटी धोती पाड़ी, ते एड्डा वड्डा रुमाल कर दित्ता! फिर जो उधर से प्रतिक्रिया आयी वह आनी ही थी - "जाओ तुम्हें मृत्यु को दिया"।
और फिर उसका भी उत्तर बराबर का था। वैसे तो डराने वाली बात थी, विशेष रूप से एक बच्चे से यदि उसका पिता कहे कि "जाओ मर जाओ", तो थोड़ा भयभीत होना स्वाभाविक है। किन्तु यहाँ भी नचिकेत ने बाजी मार ली। निकल गया। अब क्या रहना ऐसे झूठ के महल में, झूठों के सरदार के साथ। तो निकल गया मृत्यु की खोज में। कोई भी सत्य का खोजी कुछ न कुछ देर के लिए ही सही मृत्यु की खोज में भी संलग्न होगा। ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े और अटल सत्यों में से एक है मृत्यु। सत्य को जानने में एक पड़ाव मृत्यु को जानना-समझना भी है।
फिर नचिकेत ने क्या जाना, क्या समझा, वह कहानी की कम और सिद्धान्त व दार्शनिकता की बातें अधिक है, इसलिए उन पर अन्यत्र चर्चा होनी चाहिए। पर मेरे लिए यह कहानी यहीं तक परम-रोमांचक रही है।
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