July 16, 2020
प्रस्तुतकर्ता - manisar
ये बस नज़र और नज़रिये का फ़र्क़ है। उस फकीर के प्यार से भरे हुए हृदय को, जो बस देने की भाषा जानता है लेने की नहीं, अपनी झोपड़ी में ज़रूरत के वक़्त दूसरों के लिए, चाहे वे अनजान ही क्यों न हों, जगह की कोई कमी नहीं लगती! उसी झोपड़ी में औरों को जगह की कमी महसूस होती है, और फकीर को बहुतायत!
एक पुरानी कहानी, ओशो की ज़ुबानी...
'एक फकीर के बाबत मुझे ख्याल आता है। एक छोटा सा फकीर का झोंपड़ा था। रात थी, ज़ोर से वर्षा होती थी। रात के बारह बजे होंगे। फकीर और उसकी पत्नी दोनों सोते थे। किसी आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। छोटा सा झोंपड़ा, कोई शायद शरण चाहता था। उसकी पत्नी से उसने कहा कि "द्वार खोल दे, कोई द्वार पर खड़ा है, कोई यात्री, कोई अपरिचित मित्र।"
सुनते हैं उसकी बात? उसने कहा, "कोई अपरिचित मित्र", हमारे तो जो परिचित हैं, वे भी मित्र नहीं हैं। उसने कहा कि कोई अपरिचित मित्र... प्रेम का भाव है।
"कोई अपरिचित मित्र द्वार पर खड़ा है, द्वार खोल दे।" उसकी पत्नी ने कहा, "लेकिन जगह तो बिलकुल नहीं है। हम दो के लायक ही मुश्किल से है। कोई तीसरा आदमी भीतर आयेगा तो हम क्या करेंगे?"
उस फकीर ने कहा, "पागल यह किसी अमीर का महल नहीं है, जो छोटा पड़ जाये। यह गरीब का झोंपड़ा है। अमीर का महल छोटा पड़ जाता है हमेशा। एक मेहमान आ जाये तो महल छोटा पड़ जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है।"
उसकी पत्नी ने कहा, "इसमें झोपड़ी....अमीर और गरीब का क्या सवाल है? जगह छोटी है।"
उस फकीर ने कहा कि "जहाँ दिल में जगह बड़ी हो वहाँ झोपड़ी महल की तरह मालूम हो जाती है। और जहाँ दिल में छोटी जगह हो वहां झोंपड़ा तो क्या महल भी छोटा और झोंपड़ा हो जाता है। द्वार खोल दो, द्वार पर खड़े हुए आदमी को वापस कैसे लौटाया जा सकता है? अभी हम दोनों लेटे थे, अब तीन लेट नहीं सकेंगे, तीन बैठेंगे। बैठने के लिए काफी जगह है।"
मजबूरी थी, पत्नी को दरवाजा खोल देना पड़ा। एक मित्र आ गया, पानी से भीगा हुआ। उसने कपड़े बदले और वे तीनों बैठ कर गपशप करने लग गये। दरवाजा फिर बंद कर दिया।
फिर किन्हीं दो आदमियों ने दस्तक दी। अब उस मित्र को उस फकीर ने कहा, वह दरवाजे के पास था, कि "दरवाजा खोल दो। मालूम होता है कि कोई आया है।" उसी आदमी ने कहा, "कैसे खोल दूँ दरवाजा, जगह कहाँ है यहाँ। नहीं, दरवाजा खोलने की ज़रूरत नहीं; मुश्किल से हम तीन बैठे हैं।"
वह फकीर हँसने लगा। उसने कहा, "बड़े पागल हो। मैंने तुम्हारे लिए जगह नहीं की थी। प्रेम था, इसलिए जगह की थी। प्रेम अब भी है, वह तुम पर चुक नहीं गया और समाप्त नहीं हो गया। दरवाजा खोलो, अभी हम दूर-दूर बैठे हैं। फिर हम पास-पास बैठ जायेंगे। पास-पास बैठने के लिए काफी जगह है। और रात ठण्डी है, पास-पास बैठने में आनन्द ही और होगा।"
दरवाजा खोलना पड़ा। दो आदमी भीतर आ गये। फिर वह पास-पास बैठकर गपशप करने लगे। और थोड़ी देर बीती है और रात आगे बढ़ गयी है और वर्षा हो रही है ओर एक गधे ने आकर सर लगाया दरवाजे से। पानी में भीग गया था। वह रात शरण चाहता था।
उस फकीर ने कहा कि "मित्रों", वे दो मित्र दरवाजे पर बैठे हुए थे जो पीछे आये थे, "दरवाजा खोल दो, कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया।"
उन लोगों ने कहा, "वह मित्र वगैरह नहीं है, वह गधा है। इसके लिए द्वार खोलने की ज़रूरत नहीं है।"
उस फकीर ने कहा कि "तुम्हें शायद पता नहीं, अमीर के द्वार पर आदमी के साथ भी गधे जैसा व्यवहार किया जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है, हमें गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार करने की आदत भर हो गई है। दरवाजा खोल दो।"
पर वे दोनों कहने लगे, "जगह?"
उस फकीर ने कहा, "जगह बहुत है; अभी हम बैठे हैं, अब खड़े हो जायेंगे। खड़े होने के लिए काफी जगह है। और फिर तुम घबराओ मत, अगर ज़रूरत पड़ेगी तो मैं हमेशा बाहर होने के लिए तैयार हूँ। प्रेम इतना कर सकता है।"'
नए ज़माने में और ख़ासकर हिंदोस्तानी आबो-हवा में ख़ुद को बचाने की, बचाए रखने की एक कश्मकश सी जैसे हर वक़्त हमारे ज़हन में बरक़रार रहती है। चाहे हमारे ध्यान में हो या नहीं। काफी हद तक लाज़मी भी है। जिस क़दर प्रतिस्पर्धात्मक समाज में हम बड़े हुए हैं, और जिस तरह हर वक़्त लोगों के हुजूम को दौड़ते-भागते, छीना-झपटी करते हुए हमने अपने चारों ओर देखा है, उसका यही नतीजा हो सकता है। पर अगर ज़िंदगी कभी मौका दे, अगर कभी लगे कि हम काफी हद तक महफूज़ हैं, ज़्यादा लेने की बजाय ज़्यादा दे सकते हैं, इससे हमारा कुछ बिगड़ेगा नहीं, अगर थोड़ा बिगड़ भी गया तो कोई बात नहीं - अगर ऐसा एहसास कभी दिल की गहराइयों से आवाज़ दे, तो इस फकीर की तरह जी के देखेंगे... क़सम से मज़ा कम नहीं, ज़्यादा आएगा!
बेहद मिठास से भरी इस छोटी सी कहानी को और भी खूबसूरत बनाता है ओशो का अंदाज़-ए-बयाँ! "अपरिचित-मित्र" जो बार-बार प्रयुक्त हुआ है इस कहानी में, बड़ा मधुर लगता है। "दरवाजा खोल दो, कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया...।" जो परिचित हैं, वे तो मित्र हैं ही... परिचित मित्र, लेकिन जो अपरिचित हैं, वे बस अपरिचित भर नहीं है, वे हैं अपरिचित-मित्र! वे भी मित्र हैं, बस अभी पहचान भर नहीं हुई है, कितनी देर लगती है, अभी पहचान किए लेते हैं।
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