"Whenever you can, share. You never know who all will be able to see far away standing upon your shoulders!"
I write mainly on topics related to science and technology.
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स्मृत तो नहीं है कि यह कहानी पहली बार कहाँ पढ़ी, संभावना यही है कि स्वामी रामतीर्थ की किसी पुस्तक में ही पढ़ी होगी। नीचे उद्धृत 'योगी' कथा के समान ही इसमें भी अतीव 'shock-factor' है।
एक धनवान सेठ साहब अपने कार्य में तो बहुत कुशल थे किन्तु ध्यान-परमात्म की अधिक चर्चा नहीं करते थे। एकदा उनकी धर्मपत्नी उन्हें बोली - "मेरा भाई बहुत वैराग की बातें किया करता है, मुझे लगता है वह शीघ्र ही सब छोड़-छाड़ के संन्यास ले लेगा"। सेठ साहब ने हँस कर समझाया कि "अरी पगली ऐसे नहीं संन्यास लिया जाता है, चिंता मत करो वह कहीं नहीं जाएगा"।
एक साल बीता था कि पत्नी फिर बोली - "भाई ने बहुत शास्त्र कण्ठस्थ कर लिए हैं, धार्मिक सभाओं में भी उसका आना-जाना बहुत है, मुझे लगता है वह शीघ्र ही जंगल को चला जाएगा।" सेठ साहब ने फिर समझाया कि ऐसा सोचने की आवश्यकता नहीं है। पत्नी चुप हो गयी।
आज फिर पत्नी जी ने बात शुरू की - "वह वाद-विवाद में बड़े-बड़े पंडितों को भी हराने लगा है। मुझे तो लगता है..."। सेठ साहब बीच में ही बात काट कर बोले - "इस विषय में तुझे लेशमात्र भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा भाई तोता तो बहुत अच्छा बन गया है लेकिन संन्यासी बनने से अभी दूर है, ऐसे संन्यास नहीं लिया जाता है।"
इस बार पत्नी भी बोल पड़ी - "अच्छा तो तुम ही बता दो कि संन्यास कैसे लिया जाता है"। सेठ साहब अपनी अलमारी की ओर गए, कीमती वस्त्र और आभूषण उतार कर श्वेत वस्त्र धारण किए, वापस आए और पत्नी के हाथ में अलमारी और तिजोरी की चाबियाँ रखीं और कहा - "ऐसे"। इतना कह के द्वार से निकल गए। न पीछे मुड़ के देखा न कभी वापस आए।
इस कथा में दो भिन्न संदेश हैं। पहला - गरजने वाले बादल बरसते नहीं - जिसका उदाहरण भाईसाहब थे। किन्तु इससे अधिक गूढ़ व महत्वपूर्ण जो तत्त्व है कहानी का वह है सेठ साहब का चरित्र। निश्चित ही उन्होंने मात्र अपनी पत्नी को दिखाने के लिए अथवा दम्भ में भर कर यह परित्याग तो नहीं किया। कोई कर ही नहीं सकता, और कोई धनवान तो कदापि नहीं। प्रतीत होता है कि उनके मन में यह यात्रा कुछ समय से चल रही होगी।
सत्य तो यह है कि सत्य के अन्वेषी, प्यासे, मुमुक्षु, जिज्ञासु बहुधा अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा, या अपने प्रयासों का वर्णन किसी से नहीं करते।
करना नहीं चाहते ऐसा तो कभी-कभी होता होगा, बहुधा तो उनके समीपस्थ व्यक्तियों में से उन्हें कोई ऐसा मिलता नहीं जो उनकी बातों को पागलपन न ठहरा दे। अकेले, एकांत में उनके अंतर्प्रयास चलते रहते हैं। और फिर जब समय आता है तो वे प्रयास प्रतिफलित होकर आस-पास वालों को चौंका देते हैं!
स्वामी रामकृष्ण कहते थे कि "बत्तख को देखो - पानी की सतह पर वह कैसे बिना कुछ करे, बिना हिले-डुले शान्त रूप से फिसलती हुई सी प्रतीत होती है, पर पानी की सतह के नीचे हर घड़ी पूरे जतन से पैर चलाती रहती है। ऐसे ही तुम भी लोगों के बीच रहते हुए शान्त रूप से बिना विक्षुब्ध या व्याकुल हुए अपने सांसरिक कर्तव्यों का पालन करते रहो, किन्तु वास्तविकता में हर घड़ी हर पल, पूरी शक्ति से सत्य की ओर अपनी यात्रा गतिमान रखो।"
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