"Whenever you can, share. You never know who all will be able to see far away standing upon your shoulders!"
I write mainly on topics related to science and technology.
Sometimes, I create tools and animation.
एक लकड़हारा नित्य-प्रतिदिन लकड़ी काटने जंगल जाता था। हर दिन लकड़ी काट कर बेचता था, और उस कमाई से उसका घर चलता था।
उसके रास्ते में एक फकीर बैठा होता था। कभी-कभार वो लकड़हारा उसे भी कुछ दे दिया करता था।
एक दिन जब उसने उस फकीर के कटोरे में कुछ सिक्के डाले, तो फकीर बोल पड़ा - "रोज़ तुम्हें देखता हूँ जाते हुए जंगल को। और शाम को वापस आते हुए। एक सवाल है - क्या तुमने कभी इस जंगल के आगे जा के देखा कि वहाँ क्या है?" लकड़हारे ने कहा - "नहीं"। और आगे बढ़ गया। सोचने लगा - "कभी फुर्सत मिले तो जाऊँ ना? क्या होगा आगे, या तो और भी जंगल होगा, या नहीं होगा। नहीं होगा तो मेरे किसी काम का नहीं। और होगा तो क्या मिल जाएगा।" ऐसा सोचकर उसने बात आयी-गयी कर दी।
एक दिन सहसा उसके मन मे फकीर की वह बात कौंध गयी। अबकी बार उसने सोचा कि चलो देख ही आते हैं। और जब जा के देखा तो पैरों तले ज़मीन निकल गयी! आगे तो चन्दन के पेड़ थे। वाह! साधारण लकड़ी से कितनी कमाई होती है? चन्दन की लकड़ी का तो कहना ही क्या! बस फिर क्या था। अब उसने चन्दन की लकड़ी बेचनी शुरू कर दी। थोड़ी स्थिति बेहतर हुई। घर-वर ठीक हो गया। कपड़े कायदे के हो गए। और सबसे बड़ी बात। हर रोज़ का लकड़ी काटना और बेचना अब हफ़्तेवार हो गया।
यह क्रम चला कुछ महीने, साल। एक दिन जब वह चन्दन की लकड़ी लेने जा रहा था वो फकीर फिर बोला - "थोड़ा और आगे जा के देखा?" लकड़हारे ने फिर कहा "नहीं", और चल दिया। चलते-चलते सोचा - "अब चन्दन की लकड़ी से बेहतर भी कोई लकड़ी होती है क्या? आखिर क्या होगा और आगे? वक़्त निकालना भी तो मुश्किल है। पहले भले थे, झोपड़ी थी, थोड़े कपड़े थे। अब पक्का घर है, जब देखो मरम्मत माँगता है। बैंक अकाउंट, एफ़-डी, इंश्योरेंस पॉलिसी, टैक्स-रिटर्न... कितने तो ताम-झाम हैं। और ये महाराज कह रहे हैं आगे जा के देखा! जाऊँगा, जब टाइम मिलेगा, ज़रूर जाऊँगा।" यह सोच के उसने कुछ और साल निकाल दिये।
अचानक एक दिन दिमाग़ की बत्ती जली तो उसे फकीर की बात याद आयी। सोचा चलो चल के देखता हूँ। और भाईसाहब! आगे गया तो आँखें फटी की फटी रह गईं - आगे चाँदी की खदान थी... अनछुई! लकड़ी तो लकड़ी होती है - चाहे जामुन की हो या चन्दन की। चाँदी से क्या मुक़ाबला! अब बने हुज़ूर सेठ साहब! चाँदी बेचनी शुरू की। घर महल बन गया। नौकर-चाकर आ गए। Levis की जीन्स और Nike के जूते आ गए। और सबसे बड़ी बात। साप्ताहिक आना जाना अब माहवार हो गया।
एक दिन फिर उसे वह फकीर दिखा रास्ते में। उसने सोचा "कैसे बचूँ? इसने मुझे देख लिया तो फिर पूछेगा कि "आगे गए क्या"? अब कौन बताए सरकार को कि यहाँ साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है, आगे कौन जाये?" लेकिन फकीर छोड़ने वालों में से नहीं था। उसने फिर पकड़ लिया, और दाग़ दिया सवाल - "आगे जा के देखा?" लकड़हारा, मतलब सेठ साहब बोले - "नहीं हुज़ूर, जाऊँगा, जाऊँगा।" और चैन की साँस ली। जाने वाला तो वह कहाँ था!
दिन, महीने, साल निकले तो एक दिन, अनायास ही चला गया आगे. लो भई! अब क्या कहें - यहाँ तो हीरे बिखरे पड़े हैं ज़मीन पे! कुछ मेहनत नहीं करनी। बस हीरे उठाओ और चलते बनो। खोदना, ढोना, गलाना, जमाना... अब गया वो ज़माना! और कीमत, बेतहाशा! अब तो ज़िंदगी सही मायने में गुलज़ार हो गयी। और सबसे बड़ी बात। उस रास्ते पर आने-जाने का मासिक क्रम अब अर्द्धवार्षिक हो गया।
लेकिन, किन्तु, परन्तु... वह फकीर! वह कहाँ पीछा छोड़ता। आज फिर पकड़ा उसने और पूछ डाला - "आगे देखा?" अब तो सेठ साहब भी बोल पड़े - "महाराज आपने मुझपे बहुत कृपा की! मुझे ज़ीरो से हीरो बना दिया। लेकिन अब रहम कीजिये! अब हीरों से आगे और क्या हो सकता है! अत्यधिक व्यस्त हो गया हूँ जीवन में। अब आगे क्या हो सकता है आप ही बता दीजिये।" फकीर बोला - "अबे गधे, और भी आगे, इन हीरों के भी आगे मैं हूँ, मैं! कभी सोचा तूने? मुझे पहले दिन से पता था कि साधारण लकड़ी के जंगल के आगे चन्दन का जंगल है, उसके आगे चाँदी, उसके आगे हीरे, और फिर भी मैं यहाँ बैठा हूँ। क्या यह इस बात की ओर इंगित नहीं करता कि मेरे पास हीरों से भी मूल्यवान कुछ होना चाहिए? बोल तुझे चाहिए क्या?" और फिर उस लकड़हारे ने फकीर के पैर पकड़ लिए। बोला - "मुझे माफ कर दीजिये, आपके इशारे तो साफ़ थे, मैं ही महामूर्ख जहाँ जो मिला वहीं रुक जाता था, और ज़िंदगी के इतने साल ज़ाया कर दिये. अब मैं हूँ आपकी शरण में, मुझे भी वह आबे-हयात चखाइये जो आपको मिल गया है"।
फकीर ने कहा - "ठीक बच्चे, आ जा फिर मैदान में। बस एक बात अब ध्यान रखियो - सत्य की खोज का जो यह रास्ता तूने अब चुना है, इस पर भी ठीक इसी तरह मुश्किलों के साथ बीच-बीच में एक-से-एक खजाने भी मिलेंगे। बड़े लुभावने, लच्छेदार आकर्षण होंगे। जैसे मुश्किलों से जीतना है, वैसे ही इन आकर्षणों से भी ऊपर उठना पड़ेगा। 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा' - सब कुछ त्यागपूर्वक भोगते हुए आगे बढ़ना है। यही समझाने के लिए तेरी यह इतने दिन की ट्रेनिंग थी जो अब पूरी हुई। ध्यान रहे - पूछता रहूँगा - आगे देखा?"।
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