Loading...
Random Pearls Random Pearls New Menu
  • All Pearls
    • Random Pearls
  • Opinion
    • Opinion  (parent page)
    • Random Pearls  (parent page of Opinion)
  • New Menu
  • Authors
  •  
  • Contact Us
  • Sign up
  • Login
    Forgot Password?
  • Follow us on
Image Back to Top Back to top
Language Preference
This website has language specific content. Here you can set the language(s) of your preference.

This setting does not affect the current page. It is used only for filtering pages in menus, preview tiles and search results.

It can be changed any time by using the login menu (if you are logged in) or by clicking the Language button on the left bottom of the page.
Log in to save your preference permanently.



If you do not set this preference, you may see a header like This page has 'language_name' content in page preview tiles.
Search
  • Navigation
  • Similar
  • Author
  • More...
You are here:
All Content / Opinion / आपकी धार्मिक भावनाओं की ठेसदानी बहुत छोटी है जनाब!
Table of Contents

Subscribe to Our Newsletter
Follow us by subscribing to our newsletter and navigate to the newly added content on this website directly from your inbox!
Login to subscribe to this page.
Categories  
Tags  
Author  
Vela Pakela

More to come...

The time will be ripe soon.

आपकी धार्मिक भावनाओं की ठेसदानी बहुत छोटी है जनाब!

Aug. 12, 2020

ध्यान दें, कहीं फट न जाए!



यह ठेसदानी क्या है?

हमारे शरीर में कुछ थैले-नुमा अंग होते हैं। इन्हें संस्कृत में ‘आशय’ और आम बोलचाल की भाषा में ‘दानी’ कहते हैं। जैसे पित्ताशय या पित्त-दानी जिसमें पित्त जमा होता है, बच्चेदानी जिसमें बच्चा पलता है।

ऐसा ही एक अंग होता है (जिसका अभी तक विज्ञान को पता नहीं लगा है) ठेसदानी! इसका कार्य होता है हमारे मन पर लगी ठेसों को, चोटों को ग्रहण और संग्रहण (जमा) करना। चोटें आती हैं, ठेसदानी में कुछ देर, कुछ दिन, कभी-कभी कुछ साल रहती हैं, फिर भुला दी जाती हैं।

लेकिन अगर यह ठेसदानी छोटी हो तो जल्दी भर जाती है, और फिर हिलने लगती है। फिर यह हमें भी तकलीफ देती है और हमारे आस-पास वालों को भी। अगर अहंकार बड़ा हो तो यह ठेसदानी बेहद छोटी हो जाती है, इसलिए जल्दी भरने लगती है। और फिर यह हमें दिन रात दोज़ख की आग की तरह जलाती है।

“खामोश! मेरी धार्मिक भावनाओं को आपने ठेस पहुँचा दी है। इसलिए अब आपको इस गुनाह की माफी माँगनी होगी। और आइंदा कभी मेरी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने की हिमाक़त न करियेगा।"

Communal Riots


यही सुनते आ रहें हैं न आप बचपन से।

आखिर कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे यह सब? इस पागलपन की कोई इंतहा है? लेकिन आप भी क्या करें, आपकी अपनी धार्मिक भावनाओं वाली ठेसदानी भी तो छोटी है। आज उनके मज़हबी जज़्बात को चोट पहुँच गयी है तो वे पागल हो गए हैं। अगर आप कुछ बोले कि “पागल मत बनो, वगैरह”, और कल आपकी धार्मिक भावनाओं को छेड़ दिया गया, फिर? फिर आप कैसे पागल बनेंगे? बवाल काटेंगे? तो इसलिए आप भी चुप रहते हैं, बोलते हैं भी तो बस यह कि “याद रखना आज तुमको पागल बनने की स्वीकृति दी है, कल तुम मुझे दे देना”।

कहना तो यह चाहिए कि “बंद करो बकवास ये, न तुम्हारा कुछ बिगड़ा है, न तुम्हारे बाप या दादा का। अब अगर हजारों साल पहले हुए किसी इंसान से, या किसी किताब से, तुम ग़ैर-फ़ितरी तौर से, असामान्य रूप से जुड़ गए हो, और उसमें किसी ने कोई कमी निकाल दी है, तो इसमें उसका या बाकियों का गुनाह क्या है? कोई सम्राट अशोक के बारे में अपनी बुरी राय ज़ाहिर करे, या जूलियस सीज़र के बारे में, तो ज़्यादा से ज़्यादा तुम अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर सकते हो (अगर वे तुम्हें पसंद हों तो), मग़र offend होना तो दूर, तुम्हें बोलने वाले को चुप कराने का भी कोई कानूनन हक़ नहीं है। तुम चाहे सम्राट अशोक को, या जूलियस सीज़र को, या किसी भी ऐरे-ग़ैरे-नत्थू-खैरे को अपना मालिक़-ए-रूह मान लो, दूसरे को तो ऐसा नहीं मनवा सकते न? और जो तुम्हारे मन का स्वामी है, वह बिल्कुल किसी दूसरे के लिए ऐरा-ग़ैरा हो सकता है, इसमें क्या गलत है?”

लेकिन बजाय यह कहने के, कहते आप यह हैं “अच्छा, तुम्हारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँची तो तुमने इतना हल्ला मचाया? मैं भी अब इंतज़ार में हूँ। मुझे भी पर्मिट मिल गया। अगली बार ज़रा कोई मेरी धार्मिक भावनाओं को छू के देखे, न बवंडर मचा दिया तो कहना? मैं क्यों चुप रहूँ? तुम डाल-डाल तो हम पात-पात! आज तुम्हारे पैगम्बर के बारे में कुछ बोला गया तो तुम्हारी ठेसदानी हिल गयी, कल जब मेरे राम, कृष्ण के बारे में कुछ बोला जायेगा तो मैं अपनी हिला लूँगा”।

इसे कहते हैं खरबूजे का खरबूजे को देख के रंग बदलना! गणित की भाषा में कहें ‘exponential growth of stupidity’। लेकिन आप भी क्या करें – इस stupidity में, मूर्खता में क्या गज़ब का रस है! अव्वल तो दिमाग नहीं चलाना पड़ता – क्योंकि थोड़ा भी सोचेंगे तो पता लग जायेगा कि यह तो सरासर अक़्ल-ए-सलीम, common-sense से उल्टी बात है। अगर समाज में हम धार्मिक भावनाओं के नाम पर offend होने की इजाज़त दे दें, तो फिर तो कोई कुछ बोल ही नहीं सकता, मतलब कुछ भी नहीं।

क्योंकि कुछ भी किसी की धार्मिक भावनाओं की ठेसदानी को हिला सकता है। किसी के धर्म या संप्रदाय या मज़हब के हिसाब से कुछ भी, वाक़ई कुछ भी आहत करने वाला हो सकता है। उदाहरण के लिए किसी की किताब या परम्पराओं के हिसाब से हिटलर परमपूज्य है, भगवान-स्वरूप है तो इतिहास की किताबों में से हिटलर की बुराइयाँ निकाल दी जाएँ! बिल क्लिंटन देवादिदेव है तो उसके बारे में बुरी राय जताना बंद! जवाहर लाल नेहरू सबसे ज़्यादा काबिल-ए-एहतराम हैं, तो उनकी कमियों की चर्चा करना बंद। और कमियों की ही क्यों, “किताब” के हिसाब से तो बस चर्चा करना भी कुफ़्र हो सकता है, तो बस इन सब की चर्चा करना बंद! क्योंकि किसी की धार्मिक किताब या धार्मिक परम्पराओं पर प्रश्न उठाना तो allowed नहीं है... बस किताब में लिखा है, या लोग ऐसा करते आए हैं, इतना काफी है।

अगर कोई कहे कि किताब का पुराना होना ज़रूरी है, तो भई कितना पुराना? 5000 साल? 1000, 500, 300? कहाँ लकीर खींचेंगे? फिर अगर कोई कहे कि उस धर्म के काफी लोग होने चाहिए? तो काफी मतलब? और minority की, अल्पसंख्यकों की इज्ज़त नहीं करेंगे आप? करेंगे न? तो अगर मैं सौ-पचास लोगों को लेकर आ जाऊँ और बोलूँ कि “मेरे इस नए मज़हब के हिसाब से सार्वजनिक शौचालय नहीं होने चाहिएँ – यह हमारे लिए offending है”, तो क्या सरकार को सब स्कूलों से, माल्स से, कार्यालयों से शौचालय हटा देने चाहिएँ? मज़हब का मामला है भई!

ऐसा नहीं होना चाहिए न? मैं आपको बुरा बोलूँ, या आपकी किसी आदत पर प्रश्नचिन्ह लगाऊँ, आप बुरा मान सकते हैं, निश्चित ही offend हो सकते हैं। फिर भी कानून तो हाथ में नहीं ले सकते, लेकिन हाँ offend होना जायज़ है, लाज़मी तो नहीं है, जायज़ है। आपके माँ-बाप को बुरा बोलूँ तो भी offend हो सकते हैं। ठीक है। हालाँकि उस पर भी सरकार को मुझे चुप कराने का कोई हक़ नहीं है। क्योंकि फिर तो विकास दुबे, विजय माल्या आदि सबके बच्चों को आ जाना चाहिए मैदान में कि नहीं साहब, हम offend हो रहें हैं, उनकी बुराई करना, उनको तंग करना वगैरह सब बंद करो। लब्बे-लुबाब यह कि समाज में किसी को किसी भी इंसान, परंपरा या विचार के बारे में अच्छी या बुरी राय ज़ाहिर करने का हक़ होना चाहिए, फिर चाहे वह इंसान जीवित हो, किसी का बाप-दादा हो, या आप उस इंसान को या उस परंपरा या विचार को पागलों की तरह प्यार करते हों।

हाँ वह इंसान अगर आप हों, आपका कोई रिश्तेदार या दोस्त वगैरह हो जिससे आप कभी व्यक्तिगत, वैयक्तिक रूप से जुड़े रहें हों, तो आप उस बुरा बोलने वाले पर मान-हानि का केस कर सकते हैं। इतना समझ में आता है।

लेकिन वह इंसान अगर सैकड़ों-हजारों साल पहले मर खप गया हो, फिर तो किसी को offend होना तो दूर, hurt भी नहीं होना चाहिए। लेकिन चलिये hurt हो सकता है, उदास हो सकता है, दुखी हो सकता है, अपने उल्टे विचार प्रकट कर सकता है, इस से ज़्यादा किसी को कुछ करने की इजाज़त नहीं होनी चाहिए। फसाद करना तो दूर, मान-हानि का केस करने की भी नहीं।

और इंसान नहीं अगर परम्पराओं की, विचारों की बात हो रही हो तब तो offend होने की बात भी करना बेमानी है। धर्म, मजहब, सम्प्रदाय - ये सब विचार हैं, अवधारणाएँ हैं। जैसे कम्यूनिस्म एक विचार है, फासिस्म एक विचार है। हो सकता है आपने इनमें से किसी को अपना माइबाप मान लिया हो, आपका अत्यधिक भावनात्मक जुड़ाव हो गया हो किसी विचार से। तो दूसरों को इनके बारे में बोलने से रोकने का आपको लाइसेन्स नहीं मिल जाता। दूसरे इन विचारों के बारे में क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं, उस पर आपकी पसंदगी-नापसंदगी के हिसाब से रोक लगाना निहायत ही हास्यास्पद बात है।

उपरोक्त व्यवस्था एक सामान्य, सभ्य समाज की मूलभूत आवश्यकता है। लेकिन इतना सोचने-समझने में भी 5-10 मिनट तो लग ही जाते हैं। इतना क्यों सोचिएगा आप, सर नहीं फट जाएगा? तो पहली बात तो यह कि आहत होने में, ठेसित होने में दिमाग़ को आराम मिल जाता है। लेकिन यह तो दीगर बात है।

असल बात तो है ego का boost-up, अहम् का, अहंकार का बढ़ावा, खुदी का इजाफा। आहाहा! क्या मधुर स्वाद है… मैं खुद तो कुछ हूँ नहीं, औकात मेरी ज़ीरो है, बिसात मेरी टके आने की भी नहीं। वैसे इसमें अपने आप में कोई खराब बात नहीं है, कोई ज़रूरी नहीं है कुछ होना। लेकिन मन तो मेरा भी करता है कि मेरी भी कोई रुतबेदार, हैसियतदार शख्सियत होती, कोई प्रतिष्ठित व्यक्तित्व होता, मैं भी कोई नवाब, निज़ाम, कोई राजाधिराज, स्वामिनारायण होता। लोग मेरे सामने झुक के खड़े होते, सलाम पे सलाम ठोंकते, या पैर छू के हाथ माथे पर लगाते। अब इस मन का क्या करें? सीधी सी युक्ति है – क्यों न मैं अपनी ego को किसी बड़ी शख्सियत से attach कर लूँ, अपने होने को किसी नामचीन संस्था से जोड़ लूँ, क्यों न अपनी दो टके की कीमत छिपाने के लिए अपने ऊपर कोई जाना-पहचाना लेबल लगा लूँ? क्यों न बस एक मामूली इंसान की बजाए हिन्दू, मुसलमान बन जाऊँ?

अरे पता है, हिन्दू हूँ मैं... अपने जीवन में तो मैंने खाक कुछ नहीं किया, लेकिन अपने हिन्दू पूर्वजों का क्या वर्णन करूँ – पूरा संसार हिला के रख दिया था। कितने प्रश्नों के उत्तर ढूँढ लिए थे उन्होंने, कितनी तरह की तकनीकें ईजाद कर लीं थीं, वीरता में सर्वोपरि थे, और अगाध बुद्धि के धनी थे... मैं, पता है मैं, उन्हीं की हिन्दू परंपरा का अनुयायी हूँ, मुझे कम मत समझना!

मैं? मैं मुसलमान हूँ। अल्लाह-तआला ने खुद हमारे पैगंबर को इल्हाम दिया था। क्या गज़ब बात है! मैं उसी नबी की रवायत का मुरीद हूँ। हर सवाल का जवाब फरमाया है अल्लाह मियाँ ने हमारे मज़हब में, हमारे नबी को। ये जो आजकल तरह-तरह की खोजें करके साइन्स-ज़दा लोग खुश होते रहते हैं... ये बिग-बैंग, ये pandemic-control ये सब अल्लाह-तआला ने हमारे रसूलुल्लाह को पहले ही बयान कर दिया था। अब रही बात मेरी, मैं तो शायद दो कौड़ी का भी नहीं, लेकिन चूँकि मैं मुसलमान हूँ, इसलिए मुझे कम मत आँकना!

अब कोई पूछे जनाब कि इतनी तकनीकें, इतने जवाब तुम्हारी किताबों में पहले ही दे दिये गए थे, तो आज तक इंतज़ार किसका था? पहले क्यों नहीं बताया कभी कि दुनिया बिग-बैंग से शुरू हुई है, कितना तापमान था, क्या आकार था? विज्ञान की खोजों की प्रतीक्षा क्यों करते रहते हो भाई? जब तक विज्ञान नहीं खोजेगा, तुम कहते हो कि “देखा, तुम्हारे विज्ञान के पास इन बातों का जवाब ही नहीं है... हमारे पास है” और जवाब भी क्या है? “पता है भगवान ने बनाया है भगवान ने, अल्लाह ने, तुम्हें नहीं पता, हमें पता है। देखा, दे दिया न जवाब!” क्या माशाल्लाह जवाब है!

और फिर जैसे ही विज्ञान कुछ खोज ले, तो तुरंत तुम कहने लगते हो “अरे, हमारे यहाँ तो पहले ही बता दिया गया था, ये देखो, साफ लिखा है यहाँ पर। (और मैं इसी महान परंपरा का अनुयायी हूँ!)” अब साफ तो क्या खाक लिखा होता है! खाली पृष्ठ भी हो तुम्हारी किताब में तो कहोगे कि “देखा, मतलब साफ है, दुनिया बनने से पहले कुछ नहीं था, सब खाली था, इसलिए ये पेज खाली है... या फिर, देखो असल में कुछ है ही नहीं, सब माया है, matter नहीं है, सब energy है इसीलिए ये पेज खाली है, हमारे यहाँ यह पहले ही पता था!”

कोई कहे कि “सरकार, थोड़ा साफ शब्दों में लिख देते जो ऐसे घुमा-फिरा के मतलब नहीं निकालना पड़ता।“ तो जवाब आता है कि “अरे यह उस समय के लोगों के हिसाब से लिखा गया था न, इसलिए इतनी सादी ज़बान इस्तेमाल की है”। मतलब एक से बढ़कर एक विज्ञान के गूढ़ रहस्य बिना किसी वैज्ञानिक शब्दावली, scientific notation के समझा दिये! अब क्या कहें इनको, कि साथ-के-साथ साइड में या फुटनोट में, ज़रा कायदे से step-by-step, क्रमानुसार भी समझा देते! अगर उस समय के लोगों को न समझ में आता तो न सही। बता देते कि ये सब 1500-2000 साल के बाद के लोगों के लिए है, इसलिए इतने वक़्त तक इसको मत पढ़ना। कुछ नहीं तो binary कोड में लिख देते (1, 0, 1, 0 की भाषा में), अपने आप जब समय आता तो लोग समझ जाते, उस से पहले नहीं!

वैसे तो इस तरह की हजारों बातें हैं जो “ज़्यादातर धर्मों और परम्पराओं” में पहले ही बता दी गयी हैं, लेकिन फिर भी बात निकली है तो मैं भी एक बात धीरे से कह दूँ? मैंने पुराण, उपनिषद, कुरान, बाइबल और advanced physics - ये सारी चीज़ें पढ़ीं हैं। अगर आपको वेद, पुराण, उपनिषद, कुरान, बाइबल वगैरह में बिंग-बैंग थ्योरी या थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी वगैरह की कहीं रत्ती भर भी झलक दिखती है, तो कृपा करके अपना धार्मिक ग्रंथ ज़रूर पढ़ें, या फिर से पढ़ें, लेकिन उसके पहले बेसिक और स्नातक स्तर का साइन्स का कोर्स एक बार ज़रूर पूरा करें।

लेकिन फिर वही बात हो जाती है न! इतना सोच लिया, या इतनी मेहनत कर ली तो आपकी ego का क्या होगा? वह कैसे परवान चढ़ेगी? इसलिए आप बस इतना कह देते हैं और सोच लेते हैं - “मैं हिन्दू हूँ, मुसलमान हूँ, और मेरी किताबों में, मेरी परंपरा में निरा सत्य वर्णित है। मेरी किताबों, परम्पराओं और मेरे देवी देवताओं, मेरे पैगंबर पर कोई प्रश्न उठाना तो दूर, कोई चर्चा भी मत करना, नहीं तो मेरी ठेसदानी हिलने लगेगी, हो सकता है फट भी जाये। फट गयी तो समझो ज्वालामुखी फट जाएगा। अब क्या करें, मेरी देह में मेरी ठेसदानी इतनी छोटी जो ठहरी, सारी जगह मेरी जान से प्यारी, मेरी फूली हुई ego ने जो ले ली है!”

तो इसलिए एक समझौता कर लेते हैं आप अपने जैसे अहंकारी लोगों के साथ। blasphemy law, धार्मिक-निंदा या ईश-निंदा कानून बना लेते हैं। और मन में सोच के खुश हो लेते हैं कि “वाह! क्या प्रगतिशील, understanding, progressive इंसान हूँ मैं। सब धर्मों का आदर करता हूँ। किसी को भी किसी भी धर्म के बारे में बुरा बोलने की इजाज़त नहीं दूँगा!” अब इसमें जो आप खुद जीत गए, कि कोई आपके मज़हब पर उंगली नहीं उठा सकता, यह इंतज़ाम जो आपने कर लिया, यह नहीं दिखता आपको। कैसे दिखे, पहाड़ सा अहम् जो आँखों के आगे खड़ा हुआ है। यह अहम् आपको पालता है, आप इसे। और इस कायदे, कानून की आड़ में सही को सही व गलत को गलत कहने वालों का (जो कि समाज के लिए बेहद ज़रूरी हैं), या इस पर चर्चा भी करने वालों का, मुँह जो आप बंद कर देते है, यह भी आपको समझ नहीं आता। क्योंकि सही-गलत पता भी चल जाये, या सिद्ध भी हो जाए तो जीवन में उतना स्वाद थोड़े न आएगा जितना अपनी खुदी को चाटने में। वह तो अपूर्व आनंद है!

आज के युग में जन्म लेकर भी यदि आप अपने दिमाग को बंद रखने में इस सीमा तक सफल हो जाते हैं कि ‘यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ जब देखो वहाँ वहाँ’ आपकी धार्मिक भावनाओं को ठेस लग जाती है, और आप इस ठेस का बदला लेने पर आमादा हो जाते हैं, तो आपके, और आपकी ठेसदानी के लिए एक पुराना शेर अर्ज़ है, थोड़े बदलाव के साथ...

कितने कमज़र्फ हैं ये गुब्बारे, जो चंद साँसों में फूल जाते हैं
मज़हब का चोला डाल के कमीने, अपनी औकात भूल जाते हैं
विज्ञापन
Close ad वि•

एक बेहतरीन मौजूँ कविता

ये मुसलमाँ है, वो हिंदू, ये मसीही, वो यहूद
इस पे ये पाबंदियां हैं और उस पर ये कयूद1

शेख-औ-पंडित ने भी क्या अहमक़2 बनाया है हमें
छोटे-छोटे तंग खानों में बिठाया है हमें

कस्रे-इंसानी3 पे ज़ुल्म-ओ-जहल4 बरसाती हुई
झंडियाँ कितनी नजर आती हैं लहराती हुई

कोई इस ज़ुल्मत में सूरत ही नहीं है नूर की
मुहर हर दिल पे लगी है इक न इक दस्तूर5 की

घटते-घटते महर-ए-आलमताब6 से तारा हुआ
आदमी है मज़हब-ओ-तहज़ीब का मारा हुआ

कुछ तमद्दुन7 के खलफ8 कुछ दीन9 के फ़रज़ंद10 हैं
कुलज़मों11 के रहने वाले बुलबुलों में बंद हैं

काबिले-इबरत12 है ये महदूदियत13 इंसान की
चिट्ठियां चिपकी हुई हैं मुख्तलिफ14 अद्यान15 की

फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक न इक लेबिल हर एक माथे पे है लटका हुआ

आखिर इन्साँ तंग साँचों में ढला जाता है क्यों
आदमी कहते हुए अपने को शर्माता है क्यों

क्या करे हिंदोस्ताँ अल्लाह की ये भी है देन
चाय हिंदू, दूध मुस्लिम, नारियल सिक्ख, बेर जैन

अपने हमजिन्सों16 के कीने17 से भला क्या फायदा
टुकड़े-टुकड़े हो के जीने से भला क्या फायदा
टुकड़े-टुकड़े हो के जीने से भला क्या फायदा


1. क़ैद, 2. बेवकूफ़, 3. इंसानियत का महल, 4. अत्याचार व मूढ़ता,
5. प्रथा, रीति, 6. सूरज, 7. सभ्यता, 8. वंशज,
9. धर्म, 10. पुत्र, 11. सागर, 12. डाँट-फटकार योग्य,
13. छोटापन, 14. भिन्न प्रकार की, 15. धर्म (दीन का बहुवाची),
16. सहजन्मे, क्लोन, 17. द्वेष

विज्ञापन
Close ad वि•

विज्ञापन

Devil in Flames

Opinion पर वापस जाएँ

आपके सुझाव व टिप्पणियाँ निवेदित हैं (फॉर्मेटिंग के लिए लिखने के बाद वाक्यांश को सेलेक्ट करें, अथवा क्लिक करें)

Copyright © randompearls.com 2020

Privacy Policy