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manisar
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Whatever is there, is there.

जीवन ©

June 27, 1998

लेखक - manisar



परिप्रेक्ष्य

'विज्ञान प्रगति' में एक खंड होता था - विज्ञान गल्प जिसमें कपोल-कल्पित कहानियाँ होती थीं। कुछ क्षुद्र कल्पनाएँ नाचीज़ के भी मन में जागीं तो यह कहानी प्रकट हुई। चिन्मात्र भी स्मरण नहीं है कि इसको मैंने उन्हें विचारार्थ भेजा था या नहीं। यदि भेजा भी था तो निश्चित ही कोई उत्तर नहीं आया था।

उस समय तक (वो इंटरनेट से पहले कि दुनिया थी वैसे भी) मैंने evolution, genetics या astronomy के बारे में कुछ ख़ास नहीं जाना था। हाइ-स्कूल की बायोलॉजी और बस इधर-उधर से बटोरे हुए अधकचरे ज्ञान को इस कहानी में पिरो दिया था। अब जब पलट के देखता हूँ तो पाता हूँ कि उस समय के साधनों और जानकारी के आधार पर जो लिखा था वह, जो बाद में मैंने सीखा, उससे संपूर्णतः भिन्न तो नहीं था 🙂!

रचना कालखंड - 1998-99

आज से लगभग पाँच अरब साल पहले की बात है। मंगल ग्रह पर समृद्धि अपनी चरमावस्था पर थी। ऐसा लगता था मानों मंगल के मानव को पाने के लिए अब कुछ भी शेष नहीं रहा। ‘मंगल का मानव’ – मंगल के निवासियों के लिए मानव शब्द बहुत उपयुक्त नहीं है क्योंकि उनकी बाह्य आकृति पृथ्वी के मानव से बहुत अधिक भिन्न थी। सिर के स्थान पर लगता था कोई बड़ी फुटबॉल तीन छेद करके रख दी गयी हो। आँखों के स्थान पर गहरे गड्ढे दिखाई पड़ते थे। आँखें इनमें अंदर की ओर धँसी हुईं थीं। पलकों का तो नाम भी नहीं था। नाक, कान जैसी इंद्रियाँ अल्प-प्रयोग के कारण अविकसित सी दिखाई पड़ती थीं। दाँतों का भी आवश्यकता न होने के कारण अस्तित्व नहीं था। इतने बड़े सिर को संभाले हुए छोटा सा धड़ किसी ‘कार्टूनिस्ट’ की कल्पना को साकार करता था। हाथों और पैरों का अस्तित्व भी नाममात्र का था। लम्बे से लम्बे व्यक्ति का कद भी पाँच फिट से अधिक नहीं था। परन्तु फिर भी जैविक संगठन और आधारभूत ढाँचे में समानताओं के आधार पर हम मंगल के निवासियों को मानव की संज्ञा दे सकते हैं।

तो बात हो रही थी मंगल की समृद्धि और उन्नति की। मंगल के मानव ने तो जैसे सम्पूर्ण (मंगल) प्रकृति को अपने बस में कर लिया था। वह जब चाहे ग्रीष्म अथवा शीत ऋतु का आवाहन कर सकता था। भूकंपों का केंद्र परिवर्तित कर उन्हें निर्जन स्थानों की ओर मोड़ सकता था। ज्वालामुखियों की अतुल विनाशकारी ऊर्जा का उपयोग सृजनात्मक कार्यों में कर सकता था। ‘जीन बैंक’ से ‘जींस’ लेकर वह मनचाहे गुणों से युक्त संतान उत्पन्न कर सकता था। वह यूरेनस पर अपने पैरों की छाप छोड़ चुका था। परन्तु अपने निकटतम ग्रह पृथ्वी पर पहुँचने की उसकी कामना पूर्ण नहीं हो पायी था। क्योंकि पृथ्वी तब तक आग का एक धधकता हुआ गोला थी।

मंगल का जन्म भी सौर-मण्डल के अन्य ग्रहों के समान सूर्य से हुआ था। परन्तु मंगल सूर्य के समीपस्थ अन्य ग्रहों की अपेक्षा अप्रत्याशित गति से ठण्डा हो गया था। वहाँ भी जीवन का प्रादुर्भाव और उसकी प्रगति कदाचिद् उसी प्रकार हुई जैसी पृथ्वी पर मानी जाती है। परन्तु उसकी गति बहुत तीव्र थी। सूर्य से विलग होने के पश्चात् एक अरब सालों में मंगल की कायापलट हो गयी थी। आज मंगल अपने जीवन पर इतरा रहा था। यही कारण था कि जहाँ पृथ्वी, शुक्र और बुद्ध जैसे ग्रह अत्यधिक उष्णता और जीवन-शून्यता के साथ सूर्य कि परिक्रमा कर रहे थे वहीं मंगल अपने जीवन पर घमण्ड करता हुआ मानों सूर्य को अपनी परिक्रमा करने के लिए विवश कर देने को आतुर था।

परन्तु एक गोपनीय की बात भी है। सभ्यता के उत्थान और अति-तीव्र उन्नति के साथ मंगल पर भी विद्वेष और विनाश के बीज सञ्चित हो गए थे। यह कैसे और कब हुआ यह तो इस कहानी की विषय-वस्तु के बाहर की बात है, किन्तु सत्य यह है की उन बीजों ने अब अंकुरित होना प्रारम्भ कर दिया था। मंगल भी पृथ्वी के सामान छोटे-छोटे देशों में बँटा हुआ था। यह बात और थी कि मंगल के बीस हज़ार साल के लिखित इतिहास में एक भी युद्ध का उल्लेख नहीं था। सारे मंगल-मानव सैकड़ों वर्षों से एकजुट होकर कार्य करते चले आ रहे थे। यदि आपको आश्चर्य हो रहा है तो एक बार किसी मधुमक्खियों के छत्ते या चींटियों की बांबी को थोड़ी देर निहारिये – पता लग जाएगा कि यह सम्भव है! ‘जींस’ और evolution कब, कहाँ, किस तरह का चमत्कार कर दें यह हमारी क्षुद्र परिकल्पना से बाहर की बात है। तो मंगल-मानवों की यह एकजुटता, एकात्मकता और एकसाधता ही मंगल की इतनी उन्नति के कारण थे। मंगल के समाज में अवकाश के लिए स्थान न था। परन्तु वर्षों से मशीन के समान कार्य करते आ रहे मंगल-मानवों को अब थकान का अनुभव हो रहा था। उनके हृदय में स्थित कोमल भाव जैसे कि प्रेम, करुणा, ममता आदि जिनको कभी अभिव्यक्ति का अवसर नहीं दिया गया था, आज कुविकसित होकर मंगल-मानव को समाज से विद्रोह करने की प्रेरणा दे रहे थे। मंगल पर विभिन्न समस्याओं जैसे जनसंख्या-विस्फोट, सामाजिक असमानता और प्राण-नाशक प्रदूषण का प्रादुर्भाव हो रहा था जो मंगल निवासियों के लिए बिलकुल नयी थीं। मंगल पर अचानक एक हलचल मच गयी थी। विभिन्न देश अलग-अलग गुटों में सम्मिलित हो रहे थे। मंगल के बुद्धिजीवियों को किसी बड़े खतरे की आशंका हो रही थी। कोई तूफान अपने आने की पूर्वसूचना दे रहा था।

मग्न वैज्ञानिक

Mars Globe

परन्तु इन हलचलों से दूर किसी निर्जन स्थान पर एक वैज्ञानिक अपने प्रयोगों में मग्न था। इस वैज्ञानिक का नाम मंगल की भाषा में बड़ा विचित्र था। अतः हम इसे अपनी सुविधा के लिए हिन्दी का कोई नाम, जैसे प्रो॰ कुलकर्णी दे देते हैं। वैसे आप चाहें तो इसे बादल भी सकते हैं. तो, प्रो॰ अपने प्रयोगों में पूर्णतः खोये हुए थे। उन्हें विश्वास था की वे शीघ्र ही एक ऐसी कोशिका का विकास कर लेंगे जो प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवित रह सके। यह कोशिका प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने चारों ओर एक दृढ़ आवरण विकसित कर लेगी और ऐसी अवस्था में, स्थितियाँ अनुकूल न होने तक, मृतप्राय होकर वर्षों तक पड़ी रहेगी। फिर परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर वापस सामान्य अवस्था में आकर पुनः जीवन यापन करने लगेगी। ठीक उसी प्रकार जैसे अमीबा विषम वातावरण में अपने चारों ओर ‘सिस्ट’ नामक खोल विकसित कर लेता है और अनुकूल परिस्थितियों में पुनः सामान्य हो जाता है। परन्तु प्रो॰ कुलकर्णी तो ऐसी कोशिका के निर्माण में व्यस्त थे जो छोटी-छोटी विषमताओं की अपेक्षा सैकड़ों डिग्री सेन्टीग्रेड का ताप, भयंकर ठंड, वायु-हीनता, दाब-हीनता और अबाधित विकिरण जैसी विषमताओं को सहन कर सके। ऐसा करने के लिए उन्होंने कुछ रसायनों और धातुओं का उपयोग करके चंद विशेष प्रकार के प्रोटीनों और डीएनए का निर्माण किया था जिसे कोशिका के केंद्रक में प्रविष्ट करा के उसे इस प्रकार की कोशिका में परिवर्तित किया जा सकता था। परन्तु यहीं पर मुख्य समस्या थी। कोशिका इन बाह्य तत्त्वों को स्वीकार नहीं कर रही थी। किन्तु प्रो॰ कुलकर्णी को विश्वास था की वे इन पदार्थों में थोड़ा सा बदलाव करके उन्हें कोशिका के लिए सुग्राह्य बना देंगे।

इधर प्रो॰ कुलकर्णी महीनों से अपने प्रयोगों में व्यस्त थे और उधर मंगल पर विनाश के बादल मँडराने लगे थे। प्रो॰ कुलकर्णी को भी इस बात का पूर्वानुमान था की यदि मंगल पर एक बार विनाश का ताण्डव प्रारम्भ हुआ तो फिर वह मंगल के नाश के साथ ही समाप्त होगा। उनकी काम करने की गति दिन-प्रतिदिन तेज़ होती जा रही थी।

प्रलय का दिन

आज के दिन भी वे इसी आशंका से ग्रस्त किन्तु पूरी तल्लीनता से अपना कार्य कर रहे थे कि तभी उनके व्यक्तिगत सहायक, जो कि एक रोबोट था, ने उन्हें सूचना दी कि दो शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच युद्ध प्रारम्भ हो चुका है और प्रतिक्षण अनेक राष्ट्र इस युद्ध में संलग्न होते जा रहे हैं। प्रो॰ कुलकर्णी कि उँगलियाँ काँपने लगीं। उन्हें पता था कि मंगल कि जीवनावधि अब केवल कुछ घंटों से अधिक नहीं बची है क्योंकि इतने उन्नत मंगल का एक-एक नाभिकीय और रासायनिक अस्त्र असीम विनाशकारी ऊर्जा का भण्डार है। इन अस्त्रों का उपयोग आज तक तो प्रकृति को वश में करने के लिए किया जाता था, और यही कारण था कि मंगल पर इन अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया गया था। किन्तु आज इनका मुँह अपने निर्माताओं कि ओर ही मुड़ चुका था। मात्र दस-बारह ऐसे अस्त्रों के उपयोग के पश्चात् मंगल को पूरी तरह विनष्ट होने से कोई नहीं बचा पायेगा – यही सोचकर प्रो॰ कुलकर्णी की हालत खराब होती जा रही थी। हाथ रखते कहीं थे और पड़ता कहीं और था। और तभी उनकी प्रयोगशाला आनन्द और उल्लास भरी हँसी से गूँज उठी। एक टेस्ट-ट्यूब हाथ में पकड़े हुए प्रो॰ कुलकर्णी पागलों की तरह नाच रहे थे क्योंकि इसी टेस्ट-ट्यूब में उनकी चालीस वर्षों की साधना का प्रतिफल था। उन्होंने अंततः स्वकल्पित कोशिका का निर्माण कर लिया था। उन्होंने जीवन-रक्षा का उपाय खोज लिया था। परन्तु उनकी यह हँसी अधिक समय तक विद्यमान न रह सकी। लेसर-गन का एक चूका हुआ निशाना उनकी प्रयोगशाला से टकराया और वह कुछ ही क्षणों में जलकर नष्ट हो गयी। और साथ ही नष्ट हो गया उस महान वैज्ञानिक का महान जीवन। नष्ट हो गयी वह टेस्ट-ट्यूब जिसमें प्रो॰ कुलकर्णी का वह आविष्कार सुरक्षित था। जीवित बचा तो केवल जीवन का एक सूक्ष्म कण। एक नन्हीं सी कोशिका जो प्रो॰ कुलकर्णी की वसीयत थी। वस्तुतः प्रो॰ कुलकर्णी के इस आविष्कार की कसौटी परखे जाने का समय आ गया था। प्रयोगशाला में आग लगते ही और तापमान ऊपर जाते ही उस कोशिका ने अपने चारों ओर कठोर आवरण का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया था और अब वह आग के धुएँ के साथ भूमि से कई फीट ऊपर जा कर हवा में तैर रही थी।

इधर मंगल पर विनाश का ताण्डव गतिमान था। मानव-जनित विनाश के साथ-साथ अब प्राकृतिक आपदाओं का रूप भी भयावह होता जा रहा था – क्योंकि उनको नियंत्रित और नियमित करने की सारी मेधा, ऊर्जा और सारे साधन या तो समाप्त हो चुके थे, या फिर अन्य दिशाओं में लगाए जा चुके थे। भूकंपों, आँधियों और ज्वालामुखियों के फटने का क्रम जो चालू हुआ तो फिर वह चलता ही रहा। प्रलय सामने थी।

पाँच सौ साल बीत गए

सब कुछ शान्त हो चुका था। मंगल एक निर्जन मरुस्थल में परिवर्तित हो चुका था। अब वहाँ केवल चट्टानों और धूल का ही अस्तित्व बचा था। और बचा था जीवन के एक अंतिम कण का अस्तित्व। उस कोशिका ने मंगल के एक ज्वालामुखी की खोह में आश्रय लिया था। दो लाख साल बाद मंगल का वह अंतिम ज्वालामुखी अंतिम बार फटा और इस बार उसमें ऐसा विस्फोट हुआ कि पूरा मंगल हिल गया। इसके साथ ही मंगल एक पूर्णतः निर्जीव व निष्क्रिय ग्रह बन गया। यह विस्फोट इतना भयंकर था कि ज्वालामुखी से निकली कुछ धूल मंगल के वायुमण्डल के सबसे ऊपरी भाग में पहुँच गयी। धूल के इन्हीं टुकड़ों में से एक पर वह कोशिका चिपकी हुई थी। ये कण हजारों-लाखों साल तक मंगल के परिक्रमा करते रहे।

इधर पृथ्वी पर भी भारी हलचल मची हुई थी। वह द्रुतगति से ठण्डी हो रही थी। जल व अन्य कार्बनिक पदार्थों का निर्माण हो रहा था। कुल मिलाकर जहाँ उसके पड़ोसी ने जीवन को दुत्कार दिया था, वह जीवन का स्वागत करने को आतुर हो रही थी।

एक बार एक धूमकेतु सौर-मण्डल से होकर गुज़रा। मंगल और पृथ्वी के बीच से होता हुआ वह सौर-मण्डल से बाहर निकल गया किन्तु उसके आकर्षण का प्रभाव कुछ यह हुआ की धूल का वह कण मंगल की कक्षा से बाहर आ गया और फिर अधिक समय तक पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बच न सका। अन्ततोगत्वा वह पृथ्वी पर आ गिरा जहाँ पहले से ही परिस्थितियाँ उस कोशिका का स्वागत करने के लिए तत्पर थीं।

अनुकूल वातावरण पाते ही कोशिका का कठोर आवरण स्वतः विनष्ट हो गया और तत्पश्चात् उस कोशिका ने पृथ्वी के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए स्वतंत्र रूप से जीवन-यापन प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार जीवन एक लंबी निद्रा के पश्चात् पुनः जाग उठा। इसके बाद क्या हुआ यह तो आप जानते ही हैं। आज जीवन पुनः अपनी स्वाभाविक गति से गतिमान है और पृथ्वी का मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर है। परंतु प्रगति की इस अंधी दौड़ में हमें यह ध्यान रखना है कि कहीं हम भी मंगल के मानव का अनुकरण तो नहीं कर रहे। कहीं हम भी स्वयं अपने हाथों अपने विनाश का बीज तो नहीं बो रहे। यदि ऐसा है तो हमें समय रहते सचेत हो जाना चाहिए अन्यथा पृथ्वी का हश्र भी वही होगा जो मंगल का हुआ।

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